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प्रेम कविताएँ

कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |
कुछ तुम कहो कुछ मैं कहु |
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हाँ पापा, मैंने प्यार किया था
उसी लड़के से
जिसे आपने मेरे लिए ढूँढा था।

उसी लड़के से
जो बेटा था आपके ही मित्र का।
हाँ पापा, मैंने प्यार किया था बस उसी से।

फिर क्या हुआ?
क्यों नहीं बन सकी मैं उसकी और वो मेरा?

मैंने तो एक अच्छी बेटी का
निभाया था ना फर्ज?
जो तस्वीर लाकर रख दी सामने
उसी को जड़ लिया था अपने दिल की फ्रेम में।

फिर क्यों हुआ ऐसा कि
नहीं हुआ उसे मुझसे प्यार?

क्या साँवली लड़कियाँ
नहीं ब्याही जाती इस देश में?

क्यों लिखते हैं कवि झूठी कविताएँ?
अगर होता जो मुझमें सलोनापन तो
क्या यूँ ठूकरा दी जाती
बिना किसी अपराध के?

पापा, आपको नहीं पता
कितना कुछ टूटा था उस दिन
जब सुना था मैंने आपको यह कहते हुए
‘बस, थोड़ा सा रंग ही दबा हुआ है मेरी बेटी का
बाकि तो कुछ कमी नहीं।

उफ, मैं क्यों कर बैठी उस शो-केस में रखे
गोरे पुतले से प्यार?

मुझे देख लेना था
अपने साँवले रंग को एक बार।

सारी प्रतिभा, सारी सुघड़ताएँ
बस एक ही लम्हे में सिकुड़ सी गई थी।
और फैल गया था उस दिन
सारे घर में मेरा साँवला रंग।

कोई नहीं जानता पापा
माँ भी नहीं।
हाँ, मैंने प्यार किया था
उसी लड़के से
जिसे ढूँढा था आपने मेरे लिए।

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